सब कुछ ख़ुद करने के चक्कर में कुछ नहीं हो पा रहा है
दो चार काम ही हैं वो भी मुझसे नहीं हो पा रहा है
कहा से लाए वो काबिलियत की सब कुछ ठीक कर दे 
एक पल में, 
अब तो दिनों का काम हफ्तों में हो पा रहा है 
ख़ीझ है अंदर तक 
क्रोध है ख़ुद से 
दुःख है अत्यन्त
शोक है 
मानसिक सुन पन है अजीब सा 
किससे कहे व्यथा
घर जो मुझे ही देख रहा है
मित्र जिन्होंने अपना सब अर्पण किया है
निरजीव को सजीव करके उन्हीं से कह दें एक कविताएं ही हैं
 जिनसे सब कहना आसान है ।