¯⁠⁠(⁠◉⁠‿⁠◉⁠)⁠/⁠¯ आगार ¯⁠⁠_⁠ʘ⁠‿⁠ʘ⁠_⁠/⁠¯




अब और ख़ामोश रहा तो तर जाऊंगा

अबकी वक्त मिला तो घर जाऊंगा

यहां मकानों को देखते देखते खो गए सपने

नए सपने बुनने मैं घर जाऊंगा

बहुत वक्त गुजर अपने से राबता किये

ख़ुद को दोबारा मिलने अपने घर जाऊंगा

जिंदगी की जद्दोजहद में लोग थक जाते हैं

कुछ और देखने काशी मथुरा जाते हैं

तुम जाओ मथुरा काशी अपने मन को समेटने

मुझे वक्त मिला तो मैं घर जाऊंगा

लोग जाते हैं कहीं खुद की ख्वाहिश को बताने

दरगाहों में अपनी खोई हुई इच्छा आरजू जगाने

तुम जाओ आस्तानों पर ख़ुद की तमन्नाएं बताने

मुझे वक्त मिला तो मैं अपने घर जाऊंगा

मैं भरा बैठा हूं दोबारा खाली होने को

पर अबकी और ख़ामोश से भर जाऊंगा

शांति जो मुझमें थी ही नहीं कभी

अब उस शांति के लिए मैं घर जाऊंगा

चिंगारी बुझ न जाए इस धूल भरे शहर

अंतिम बार ज्वाला लेने मैं घर जाऊंगा

पर कैसे

वादों का क्या, आशाओं का क्या

मेरे लिए की गई उपासनाओ का क्या

यही अगर मगर किंतु परंतु में फस जाऊंगा

अब जब वक्त होगा तब घर जाऊंगा।

=•-) हर्ष पाण्डेय 

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