रात यू ही गमगीन करके हम क्या पाएंगे
तेरे शहर में दोबारा कभी न आएंगे
गुजरेंगे कभी अगर खुद को छोटा कर के
तू आवाज़ देगी तो ठहर जायेंगे
प्रशांत कहता तो था कि इश्क ना कर
मछली जैसे पानी बिन किधर जाएंगे
सोचते हैं खाला की बात मान ही लें
शादी होगी तो सुधार जाएंगे
सब हो जाएगा ठीक वक्त के साथ साथ
तेरे इश्क की कशिश हम किसे दे पाएंगे
चेहरा उतर चुका है और आंखों पर कालापन है
ये बेजान शक्ल ले किधर जाएंगे
जब पूछेगा हकीम मर्ज मेरा
मां होगी साथ हम क्या बताएंगे
कंधे की तारीफ़ उसकी सब करते हैं
पर जिनपर मैं अपना सिर न टिका सकता उनका
क्या काम
(・∀・)
!
हर्ष पाण्डेय
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